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    आदर्श व्यक्ति “स्वामी विवेकानंद जी” की जीवनी !

    January 08, 2018 StayReading.com Leave a Comment
    आदर्श व्यक्ति स्वामी विवेकानंद जी की जीवनी

    ‘स्वामी विवेकानंद’ का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ। इनके जन्मदिन को ही राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। इन्होने ‘उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए’ का संदेश दिया था।

    इनका जन्मदिन “राष्ट्रीय युवा दिवस” के रूप में मनाए जाने का प्रमु्ख कारण इनका दर्शन, सिद्धांत, अलौकिक विचार और इनके आदर्श हैं, जिनका इन्होने स्वयं पालन किया और भारत के साथ-साथ अन्य देशों में भी इन्होने स्थापित किया। इनके यह सभी विचार युवाओं में नई शक्ति और ऊर्जा का संचार करते हैं। 

    आप तो जानते ही हैं कि देश के युवा उसका भविष्य होते हैं। उन्हीं के हाथों में देश की उन्नति होती है। आज के समय में जहां भ्रष्टाचार, बुराई, अपराध का बोलबाला है जो धीरे धीरे पूरे देश में फ़ैल रहा है । ऐसे में देश की युवा शक्ति को जागृत करना और देश के प्रति कर्तव्यों का बोध कराना अति आवश्यक है। तो आइए दोस्तों ! स्वामी विवेकानंद जी के जयंती के ख़ास मौके पर हम आपको बताते हैं , इनके जीवन से सम्बंधित कुछ ख़ास किस्से जिनके बारे में शायद ही आप जानते हों। 


    स्वामी विवेकानंद जी का जन्म :

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    स्वामी विवेकानंद जी का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 को हुआ। उनके घर का नाम नरेंद्र दत्त था। उनके पिता “श्री विश्वनाथ दत्त” पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेंद्र को भी अंग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे। नरेंद्र की बुद्धि बचपन से ही बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। 



    ऐसे पड़ा नरेंद्र का नाम विवेकानंद :

    swami-stayreading

    वर्ष 1884 में श्री विश्वनाथ दत्त की मृत्यु के बाद घर का भार “नरेंद्र” पर पड़ा और उनकी घर की दशा बहुत खराब गई । उस समय नरेंद्र का विवाह नहीं हुआ था। अत्यंत गरीबी में भी नरेंद्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रातभर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते।



    रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनके पास पहले तो तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंसजी ने देखते ही पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार है। परमहंसजी की कृपा से इनको आत्म-साक्षात्कार हुआ और उसके बाद नरेंद्र परमहंसजी के शिष्यों में वे प्रमुख हो गए। संन्यास लेने के बाद नरेंद्र का नाम विवेकानंद हुआ।

    वर्ष 1897 में स्वामी विवेकानंद जी का भाषण :

    swami vivekanand vachan-stayreading

    वर्ष 1897 में मद्रास में युवाओं को संबोधित करते हुए स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था कि “जगत में बड़ी-बड़ी विजयी जातियां हो चुकी हैं। हम भी महान विजेता रह चुके हैं। हमारी विजय की गाथा को महान सम्राट अशोक ने धर्म और आध्यात्मिकता की ही विजयगाथा बताया है और अब समय आ गया है भारत फिर से विश्व पर विजय प्राप्त करे।



    यही मेरे जीवन का स्वप्न है और मैं चाहता हूं कि तुम में से प्रत्येक, जो कि मेरी बातें सुन रहा है, अपने-अपने मन में उसका पोषण करे और कार्यरूप में परिणत किए बिना न छोड़ें। हमारे सामने यही एक महान आदर्श है और हर एक को उसके लिए तैयार रहना चाहिए, वह आदर्श है भारत की विश्व पर विजय। इससे कम कोई लक्ष्य या आदर्श नहीं चलेगा, उठो भारत…तुम अपनी आध्यात्मिक शक्ति द्वारा विजय प्राप्त करो।

    इस कार्य को कौन संपन्न करेगा?” इसके अलावा इन्होने युवाओं को धैर्य, व्यवहारों में शुद्धता रखने, आपस में न लड़ने, पक्षपात न करने और हमेशा संघर्षरत् रहने का संदेश दिया। इसलिए आज भी स्वामी विवेकानंद को उनके विचारों और आदर्शों के कारण जाना जाता है।

    गुरु के प्रति निष्ठा :

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    स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को वे समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक खजाने की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा।



    स्वामी विवेकानंद जी के महान विचार :

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    देश को सम्पन्न बनाने के लिए पैसे से ज्यादा हौसले की, ईमानदारी की और प्रोत्साहन की जरूरत होती है। स्वामी जी के अमृत वचन आज भी देशवासियों को प्रोत्साहित करते हैं। उनमें चिंतन और सेवा का संगम था। विवेकानंद जी ने भारतीय चिंतन से विदेशों में भारत का सम्मान बढाया। भारत माता के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा थी।

    वर्ष 1896 में जब वे विदेश से भारत लौटे तो और जैसे ही जहाज किनारे लगा तो दौङकर वे भारत भूमि को प्रणाम किया और रेत में इस प्रकार लोटने लगे कि जैसे वर्षों बाद कोई बच्चा अपनी माता की गोद में पहुँचा हो।

    आज हमारा देश स्वतंत्र होने के बावजूद अनगिनत समस्याओं से जूझ रहा है। बेकारी, गरीबी, शिक्षा, प्रदुषण एवं अन्न-जल तथा मँहगाई की समस्या से देश की जनता प्रभावित है। ऐसी विपरीत परिस्थिति में भी स्वामी विवेकानंद जी को विश्वास था कि, हमारा देश उठेगा, ऊपर उठेगा और इसी जनता के बीच में से ऊपर उठेगा। स्वामी जी प्रबल राष्ट्रभक्त थे।

    वे देश की स्वाधीनता के कट्टर समर्थक थे। उन्हे कायरता से नफरत थी, उनका कहना था कायरता छोङो निद्रा त्यागो। स्वाधीनता शक्ति द्वारा प्राप्त करो। उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य भारत का विकास था । स्वामी जी कहते थे कि, ये जननी जन्मभूमि भारत माता ही हमारी मातृभूमि है। हमें भारतीय होने पर गर्व होना चाहिए।

    सफल जीवन का राज़ :

    swami vivekanand ji-stayreading

    “सफल जीवन” शब्द का सही आशय यह है कि सबसे पहले जानने का प्रयास करो। जब तुम जीवन के संदर्भ में सफल होने की बात करते हो तो इसका मतलब मात्र उन कार्यों में सफल होना नही जिसे तुमने पूरा करने का बीङा उठाया था या उठाया है। इसका अर्थ सभी आवश्यकताओं या इच्छाओं की पूर्ति कर लेना भर नही है। इसका तात्पर्य सिर्फ नाम कमाना या पद प्राप्त करना या आधुनिक दिखने के लिए फैशनेबल तरिकों की नकल करना नही है। सच्ची सफलता का सार ये है कि, तुम स्वंय को कैसा बनाते हो।



    यह जीवन का आचरण है, जिसे तुम विकसित करते हो। यह चरित्र है, जिसका तुम पोषण करते हो और जिस तरह का व्यक्ति तुम बनते हो। यह सफल जीवन का मूल अर्थ है। ऐसा सफल जीवन वह है, जो एक आदर्श महान व्यक्ति बनाने में कामयाब रहे। तुम्हारी सफलता का आकलन इससे नही है कि तुमने क्या पाया, बल्कि इससे है कि तुम क्या बने, कैसे जीये और तुमने क्या किया।”

    स्वामी विवेकानंद एक विद्वान पुरुष के रूप में :

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    स्वामी विवेकानंद अत्यन्त विद्वान पुरुष थे। एक बार अमेरीकी प्रोफेसर राइट ने कहा था कि, “हमारे यहाँ जितने भी विद्वान हैं, उन सबके ज्ञान को यदि एकत्र कर लिया जाए तो भी, स्वामी विवेकानंद के ज्ञान से कम होगा।“ स्वामी विवेकानंद भारत के महान सपूत, देशभक्त, समाज-सुधारक और तेजस्वी संन्यासी थे। स्वामी विवेकानंद जी की शिक्षाओं को जीवन में अपनाने का प्रयास करते हुए, उनको शत्-शत् नमन करना हमारी सांस्कृतिक गरिमा की पहचान है। अतः आज उनकी जयंती के इस शुभ अवसर पर हम पुनः उनका स्मरण एवं वंदन करें।

    विश्व धर्म परिषद् की शुरुआत :

    swami ji

    सन् 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानंद जी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुंचे। यूरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहां लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किंतु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए।



    फिर तो अमेरिका में उनका बहुत अच्छे से स्वागत हुआ। वहां इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय भी हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका में ही रहे । ‘अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा’ यह स्वामी विवेकानंदजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित कीं और अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।

    स्वामी विवेकानन्द के अनमोल विचार :

    swami vivekanand vichar-stayreading

    1. “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत” अर्थात् उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत।
    मैं सिर्फ और सिर्फ प्रेम की शिक्षा देता हूं और मेरी सारी शिक्षा वेदों के उन महान सत्यों पर आधारित है जो हमें समानता और आत्मा की सर्वत्रता का ज्ञान देती है।

    2. सफलता के तीन आवश्यक अंग हैं- शुद्धता,धैर्य और दृढ़ता। लेकिन, इन सबसे बढ़कर जो आवश्यक है वह है प्रेम।

    3. हम ऐसी शिक्षा चाहते हैं जिससे चरित्र निर्माण हो। मानसिक शक्ति का विकास हो। ज्ञान का विस्तार हो और जिससे हम खुद के पैरों पर खड़े होने में सक्षम बन जाएं।



    4. खुद को समझाएं, दूसरों को समझाएं। सोई हुई आत्मा को आवाज दें और देखें कि यह कैसे जागृत होती है। सोई हुई आत्मा के का जागृत होने पर ताकत, उन्नति, अच्छाई, सब कुछ आ जाएगा।

    5. मेरे आदर्श को सिर्फ इन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता हैः मानव जाति देवत्व की सीख का इस्तेमाल अपने जीवन में हर कदम पर करे।

    6. शक्ति की वजह से ही हम जीवन में ज्यादा पाने की चेष्टा करते हैं। इसी की वजह से हम पाप कर बैठते हैं और दुख को आमंत्रित करते हैं। पाप और दुख का कारण कमजोरी होता है। कमजोरी से अज्ञानता आती है और अज्ञानता से दुख।

    7. अगर आपको तैतीस करोड़ देवी-देवताओं पर भरोसा है लेकिन खुद पर नहीं तो आप को मुक्ति नहीं मिल सकती। खुद पर भरोसा रखें, अडिग रहें और मजबूत बनें। हमें इसकी ही जरूरत है।

    8. स्वामी जी के उपदेशों का सूत्रवाक्य, “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत” कठोपनिषद् के एक मंत्र से प्रेरित है ।

    स्वामी विवेकानंद जी की मृत्यु :

    4 जुलाई सन् 1902 को उन्होंने अपना देह त्याग किया। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया।


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